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अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । वीत꣡ये꣢ । गृ꣣णानः꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1 | (कौथोम) 1 » 1 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 1 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध की प्रथम दशति तथा प्रथम अध्याय का प्रथम खण्ड आरम्भ करते हैं। प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा, विद्वान्, राजा आदि का आह्वान करते हुए कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) सर्वाग्रणी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! आप (गृणानः) कर्तव्यों का उपदेश करते हुए (वीतये) हमारी प्रगति के लिए, हमारे विचारों और कर्मों में व्याप्त होने के लिए, हमारे हृदयों में सद्गुणों को उत्पन्न करने के लिए, हमसे स्नेह करने के लिए, हमारे अन्दर उत्पन्न काम-क्रोध आदि को बाहर फेंकने के लिए और (हव्य-दातये) देय पदार्थ श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ धन आदि के दान के लिए (आ याहि) आइए। (होता) शक्ति आदि के दाता एवं दुर्बलता आदि के हर्ता होकर (बर्हिषि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (नि सत्सि) बैठिए ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। विद्वान् भी अग्नि कहलाता है। इसमें विद्वान् अग्नि है, जो ऋत का संग्रहीता और सत्यमय होता है।’ ऋ० १।१४५।५।, विद्वान् अग्नि है, जो बल प्रदान करता है। ऋ० ३।२५।२ इत्यादि मन्त्र प्रमाण हैं। हे (अग्ने) विद्वन् ! (गृणानः) यज्ञविधि और यज्ञ के लाभों का उपदेश करते हुए आप (वीतये) यज्ञ को प्रगति देने के लिए, और (हव्य-दातये) हवियों को यज्ञाग्नि में देने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) होम के निष्पादक होकर (बर्हिषि) कुशा से बने यज्ञासन पर (नि सत्सि) बैठिए। इस प्रकार हम यजमानों के यज्ञ को निरुपद्रव रूप से संचालित कीजिए। ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। राजा भी अग्नि कहलाता है। इसमें हे नायक ! तुम प्रजापालक, उत्तम दानी को प्रजाएँ राष्ट्रगृह में राजा रूप में अलंकृत करती हैं। ऋ० २।१।८, राजा अग्नि है, जो राष्ट्ररूप गृह का अधिपति और राष्ट्रयज्ञ का ऋत्विज् होता है। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादि प्रमाण है। हे (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! आप (गृणानः) राजनियमों को घोषित करते हुए (वीतये) राष्ट्र को प्रगति देने के लिए, अपने प्रभाव से प्रजाओं में व्याप्त होने के लिए, प्रजाओं में राष्ट्र-भावना और विद्या, न्याय आदि को उत्पन्न करने के लिए तथा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को परास्त करने के लिए, और (हव्य-दातये) राष्ट्रहित के लिए देह, मन, राजकोष आदि सर्वस्व को हवि बनाकर उसका उत्सर्ग करने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) राष्ट्रयज्ञ के निष्पादक होकर (बर्हिषि) राज-सिंहासन पर या राजसभा में (नि सत्सि) बैठिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तये, तये में छेकानुप्रास है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे विद्वान् पुरोहित यज्ञासन पर बैठकर यज्ञ को संचालित करता है, जैसे राजा राजसभा में बैठकर राष्ट्र की उन्नति करता है, वैसे ही परमात्मा रूप अग्नि हमारे हृदयान्तरिक्ष में स्थित होकर हमारा महान् कल्याण कर सकता है, इसलिए सबको उसका आह्वान करना चाहिए। सब लोगों के हृदय में परमात्मा पहले से ही विराजमान है, तो भी लोग क्योंकि उसे भूले रहते हैं, इस कारण वह उनके हृदयों में न होने के बराबर है। इसलिए उसे पुनः बुलाया जा रहा है। आशय यह है कि सब लोग अपने हृदय में उसकी सत्ता का अनुभव करें और उससे सत्कर्म करने की प्रेरणा ग्रहण करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्राद्ये मन्त्रेऽग्निनाम्ना परमात्मविद्वन्नृपादीनाह्वयन्नाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

तत्र प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अग्ने) सर्वाग्रणीः, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (गृणानः) कर्तव्यानि उपदिशन् त्वम्। गॄ शब्दे, शानच्, व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वीतये) अस्माकं प्रगतये, अस्माकं विचारेषु कर्मसु च व्याप्तये, हृदयेषु सद्गुणानां प्रजननाय, अस्मासु स्नेहितुम्, कामक्रोधादीनां च बहिःप्रक्षेपणाय। वी गति-व्याप्ति-प्रजन-कान्ति-असन-खादनेषु इत्यस्मात् मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः’ अ–० ३।३।९६ अनेन क्तिन् प्रत्ययः, उदात्तत्वं च। (हव्यदातये)३ होतुं दातुं योग्यं द्रव्यं हव्यं सद्बुद्धि-सत्कर्मसद्धर्म-सद्धनादिकं तस्य दातये दानाय च। हवं दानम् अर्हतीति हव्यम्। छन्दसि च अ० ५।१।६७ इत्यर्हेऽर्थे यः प्रत्ययः। प्रत्ययस्वरेण अन्दोदात्तत्वम्। तस्य दातिः दानम्। दासीभारादित्वात्, अ० ६।२।४२ सूत्रेण पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (आ याहि) आगच्छ। (होता) शक्त्यादिप्रदाता दौर्बल्यादिहर्ता च सन्। हु दानादनयोः आदाने च इति धातोः कर्तरि तृन्। (बर्हिषि) हृदयान्तरिक्षे। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। (नि सत्सि) निषीद। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु इति धातोर्लेट्। बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि सीदादेशाभावः। नि होता सत्सि इति धातूपसर्गयोर्व्यवहितप्रयोगः व्यवहिताश्च अ० १।४।८२ इति नियमेन छान्दसो बोध्यः ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः४। विद्वानप्यग्निरुच्यते, अ॒ग्निर्विद्वाँ॒ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः ऋ० १।१४५।५, अ॒ग्निः स॑नोति वी॒र्याणि वि॒द्वान्। ऋ० ३।२५।२ इत्यादिमन्त्रप्रामाण्यात्। हे (अग्ने) विद्वन्! (गृणानः) यज्ञविधिं यज्ञलाभांश्चोपदिशन् त्वम् (वीतये) यज्ञस्य प्रगतये (हव्यदातये) हविषां यज्ञाग्नौ दानाय च (आ याहि) आगच्छ। (होता) होमनिष्पादकः सन् (बर्हिषि) दर्भासने (नि सत्सि) निषीद। एवं यजमानानामस्माकं यज्ञं निरुपद्रवं सञ्चालयेत्यर्थः ॥ अथ तृतीयः—राजपरः। राजाप्यग्निरुच्यते, त्वाम॑ग्ने॒ दम॒ आ वि॒श्पतिं विश॒स्त्वां राजा॑नं सुवि॒दत्र॑मृञ्जते ऋ० २।१।८, अ॒ग्निर्होता॑ गृहप॑तिः॒ स राजा॒। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादिप्रामाण्यात्। हे (अग्ने) अग्रणी राजन् ! त्वम् (गृणानः) राजनियमान् शब्दयन् घोषयन्, (वीतये) राष्ट्रस्य प्रगतये, स्वप्रभावेन प्रजासु व्याप्तये, प्रजासु राष्ट्रियभावनाया विद्यान्यायादीनां च प्रजननाय, आभ्यन्तराणां बाह्यानां च शत्रूणां निरसनाय वा, (हव्यदातये) राष्ट्रहितार्थं देहं मनो राजकोषादिकं वा सर्वं किञ्चिद् हव्यं कृत्वा तस्य दातये उत्सर्जनाय च (आ याहि) आगच्छ। (होता) राष्ट्रयज्ञस्य निष्पादकः सन् (बर्हिषि) राज्यासने राजसभायां वा (नि सत्सि) निषीद ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। तये, तये इति छेकानुप्रासः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा विद्वान् पुरोहितो यज्ञासने स्थित्वा यज्ञं संचालयति, यथा राजा राजसभायां स्थित्वा राष्ट्रमुन्नयति, तथैव परमात्माग्निरस्माकं हृदयान्तरिक्षे स्थित्वास्माकं महत् कल्याणं कर्तुं शक्नोतीत्यसौ सर्वैराह्वातव्यः। सर्वेषां जनानां हृदये पूर्वमेव विराजमानोऽपि परमात्मा जनैर्विस्मृतत्वादविद्यमानकल्प इति पुनरप्याहूयते। सर्वे जनाः स्वहृदि तस्य सत्तामनुभवेयुः, ततः सत्कर्मसु प्रेरणां च गृह्णीयुरित्याशयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।१६।१०; साम० ६६०। २. अग्रे प्रतिमन्त्रम् अन्वित शब्दमनुल्लिख्य केवलं पदार्थः इत्येव लेखिष्यते। ३. यद्वा, (हव्यदातये) हव्यानां दातिः दानं यस्य स हव्यदातिः यजमानः इति बहुब्रीहिः तस्मै (गृणानः) उपदिशन् त्वम् तस्य (वीतये) प्रगतये आयाहि इति योजना कार्या। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। यजमानो वै हव्यदातिः। श० १।४।१।२४। ४. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये (ऋ० ६।१६।१०) मन्त्रोऽयं विद्वत्पर एव व्याख्यातः—(अग्ने) विद्वन् ! (आ याहि) आगच्छ (वीतये) विद्यादिशुभगुणव्याप्तये (गृणानः) स्तुवन् (हव्यदातये) दातव्यदानाय (नि) (होता) दाता (सत्सि) समवैषि (बर्हिषि) उत्तमायां सभायाम् इत्यादि।